प्रियंका सौरभ
भारत, जिसे आध्यात्मिकता और विविधता का देश कहा जाता है, अपने भीतर विरोधाभासों का एक ऐसा संसार छुपाए बैठा है जो कभी-कभी चौंका देता है। एक ओर हम विज्ञान, तकनीक, अंतरिक्ष और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की बात करते हैं, वहीं दूसरी ओर सामाजिक और सांस्कृतिक परतों में आज भी मध्ययुगीन सोच जड़ें जमाए बैठी है। एक ही समाज में ऐसे दृश्य देखने को मिलते हैं जहां लोग किसी बाबा के चरणामृत को अमृत मानकर पी जाते हैं, यहां तक कि गोमूत्र और गोबर को औषधि बताकर उसका सेवन करते हैं; और उसी समाज में एक दलित व्यक्ति के हाथ का पानी पीना ‘पाप’ मान लिया जाता है। यही वह विडंबना है जिसे इस तीखे वाक्य ने पूरी ताकत से उजागर किया है—आस्था पेशाब तक पिला देती है, जाति पानी तक नहीं पीने देती। यह पंक्ति महज़ एक व्यंग्य नहीं, बल्कि भारतीय समाज की गहराई से जमी हुई दो बड़ी बीमारियों की पहचान है—एक है अंधविश्वास में डूबी आस्था और दूसरी है जातिगत भेदभाव। दोनों ही एक हद तक इंसानियत, तर्कशक्ति और समानता के मूल सिद्धांतों को चुनौती देते हैं।

