मनुष्य को जीवन में जितना कुछ मिला है, वह अपार और अमूल्य है। ईश्वर ने उसे जो शरीर दिया
है, वह सृष्टि की सबसे बहुमूल्य रचना है। अपने शरीर के कारण वह पूर्णतः आत्म-निर्भर है। मनुष्य
कुछ भी देख, सुन व समझ सकता है और कर सकता है। यह विशेषता किसी अन्य जीव में नहीं है।
इस शरीर व इसमें स्थित बुद्धि और चेतना के कारण ही मनुष्य पूरी सृष्टि को अपने आधिपत्य में
लेने में सफल रहा है ताकि उसका मनोनुकूल उपयोग कर सके।
ईश्वर की हर एक रचना सुंदर है। जब मनुष्य अपने शरीर और क्षमताओं का प्रयोग सृजन के लिए
करता है, तो सृष्टि का सौंदर्य बढ़ता है। इससे अपने शरीर व शक्तियों का सदुपयोग ही नहीं ईश्वर के
प्रति आभार भी व्यक्त होता है। संसार में कितने ही संत, मुनि, सुधारक और विद्वान हुए, जिन्होंने
अपने योगदान से सभ्यता को प्रकाशित किया और संसार को स्वस्थ आदर्श दिए, उनके बताए मार्ग
पर चलना भी उसी के समान अमूल्य योगदान है। बहुत से लोग स्वार्थ, अनाचार, ईष्र्या, निंदा, ध्वंस
की राह पर चल रहे हैं। यह ईश्वर के प्रति विश्वासघात और अकृतज्ञता है। ईश्वर प्रदत्त शक्तियां
सृजन के लिए हैं, विनाश के लिए नहीं। सौंदर्य के लिए हैं, वितृष्णा के लिए नहीं। विनाश और
वितृष्णा के भाव के कारण ही लोग ईश्वर के प्रति शिकायतों और उलाहनों से भरे नजर आते हैं। उन्हें
ईश्वर की उदारता और दयालुता नहीं दिखती। शरीर को संभालने के लिए ही ईश्वर ने धरती, सूर्य,
चंद्रमा, जल, वायु, वनस्पतियां, अग्नि और आकाश जैसे अनमोल उपहार भी दिए ताकि मनुष्य सुखद जीवन जी सके।
आज विपरीत सोच ने मनुष्य को भ्रमित कर दिया है। मनुष्य को अनमोल लगते हैं आलीशान मकान,
कार, सुख सुविधा के इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, रत्न, जवाहर और बैंक बैलेंस आदि। आनंद उसे ईश्वर के
उपहारों में नहीं सैर-सपाटों, पार्टियों और दावतों में आता है, जिसका कोई अंत नहीं है। लालसाएं सदैव
कम पड़ती हैं और अपूर्ण ही रहती हैं। इस कारण जीवन भर मनुष्य बेचैन और अतृप्त रहता है। यदि
ईश्वर के उपहार न होते तो जीवन कैसा होता। जल, वायु, और अग्नि के बिना कैसा आनंद होता?
वनस्पतियों के बिना कैसा स्वाद और कैसी तृप्ति होती। धन-दौलत, घर, कारें और हीरे-जवाहरात कम
पड़ जाते हैं, किंतु जल, वायु और अग्नि आदि का भंडार अक्षय है। धरती का अपार विस्तार अकल्पनीय है।

