धर्म की पूर्णता भगवद्सिद्धि के प्रत्यक्ष मार्ग की प्राप्ति में निहित है, यही वह बात है जो व्यक्ति को
पूर्ण मनुष्य बनाने के लिये आवश्यक है। ऐसा मनुष्य जिसका जीवन पूर्ण समंजस्यता में हो, ऐसा
मनुष्य जो अपार प्रज्ञा, सजनशीलता, ज्ञान, शांति और सुख से परिपूर्ण हो। मनुष्य के लिये धर्म की
पूर्णता वह स्थिति प्राप्त करने में है, जो विश्व के समस्त धर्मों का आदर्श है। अंग्रेजी में धर्म के लिये
जो रिलीजन शब्द का प्रयोग हुआ है उसकी व्यत्पति लैटिन के रैलीयेअर इनफिनीटिव से हुई है। रि
का अर्थ है बैक अर्थात् अतीत, पूर्व और लिगेएर का अर्थ है बांधना अर्थात् जो पूर्व से बांधे। धर्म का
प्रयोजन मनुष्य को उसके स्रोत से मूल से जोड़ना है। यदि धर्म मनुष्य के मन को उसके स्रोत पर ले
जाकर, शरीर के क्रियाकलाप को समस्त क्रियाओं के मूल से जोड़कर उसके जीवन को उसके स्रोत से
जोड़ देता है, तो धर्म का प्रयोजन पूरा हो जाता है। मन जीवन की धुरी है। यदि मन को उसके मूल
पर ले जाया जा सके तो समस्त जीवन अपने मूल से जुड़ जाएगा और धर्म का प्रयोजन पूरा हो जाएगा।
धर्म एक मार्ग है या उसे कम से कम ऐसा मार्ग तो होना चाहिये जो मनुष्य की चेतना को
भगवद्चेतना के स्तर तक उठा सके और मनुष्य के मन को दैवी चेतना या सार्वभौमिक स्रैष्टिक मन
में प्रतिष्ठित कर सके। धर्म का प्रयोजन वैय्क्तिक जीवन को प्र-ति के नियमों के सामंजस्य में लाना
है, जिससे विकास की धारा स्वाभाविक रूप से प्रवाहमान हो सके। धर्म को व्यष्टि और समष्टि के
जीवन में समन्वय स्थापित करना चाहिए जिससे मानव जीवन के समस्त गुणों का संवर्धन हो सके।
धर्म उस परम सत्ता के साक्षात्कार का मार्ग प्रशस्त करता है, जिसे दर्शन शास्त्र प्रकाशित करता है।
दर्शनशास्त्र विवेचनात्मक होता है, जबकि धर्म में भगवद् संसिद्धि के प्रत्यक्ष मार्ग का क्रियागत रूप
मिलता है। किसी धर्म के कर्मकांड उसके शरीर का प्रतिनिधित्व करते हैं और भावातीत सत्ता की
प्रत्यक्ष अनुभूति उसकी आत्मा का प्रतिनिधित्व करते हैं। दोनों आवश्यक हैं और इनका एक साथ
होना आवश्यक है। एक दूसरे कि बिना नहीं रह सकता। जब आत्मा शरीर छोड़ देता है, शरीर का
विघटन प्रारंभ हो जाता है। यही बात आज धर्मों के साथ है। वे विघटन की अवस्था में हैं क्योंकि
उनमें आत्मा का अभाव है। धर्म की आज स्थिति मनुष्य के उस शव की भांति है जिसमें मनुष्य की
चेतना नहीं है। कर्मकांड तो हैं किन्तु उनमें लोगों की चेतना को उन्नत करने की सामर्थ्य नहीं है।
ऐसा प्रतीत होता है कि धर्म की अन्तश्चेतना नहीं रह गयी है। अपनी निष्क्रियता के कारण यह
व्यावहारिक रूप में आधुनिक व्यक्ति की कल्पना से परे है। दुनिया में आज शायद ही कोई ऐसा धर्म
है जिनके संरक्षकों और उपदेशकों को उस परम सत्ता का अनुभव कराने का प्रत्यक्ष मार्ग की समझ है।
दूसरी सच्चाई यह है कि हर धर्म के उपदेशों के केंद्र बिन्दु में इस युक्तिस का अभ्यास निहित है।
यही कारण है समूचे विश्व में धर्मों ने अपनी प्रभावशीलता खो दी है और अपने प्रयोजन को पूरा
करने में विफल है। धर्म का प्रयोजन केवल इतना ही नहीं होना चाहिए कि वह केवल इस बात की
ओर इंगित करे कि क्या सही है और क्या गलत है, अपने प्रयोजन को पूरा करने के लिये उसमें
मनुष्य की अवस्था उस स्तर पर उन्नत करने की सामर्थ्य होना चाहिये कि वह स्वमेव सही मार्ग का
अनुकरण करे और गलत मार्ग से दूर रहे। इसके लिये मनुष्य की चेतना का विकास और उन्नयन
उस स्तर तक होना आवश्यक है, जहां प्र-ति के नियम एक साथ संहिता रूप स्थित हैं, जो दैवी
चेतना का क्षेत्रा है, भगवद्सत्ता का, गॉड का, अल्लाह या अलग-अलग धर्म की भाषा में इस विश्व
ब्रह्मांड का संचालन करने वाली सत्ता का आगार है। चेतना के विकास का लक्ष्य योग की सबसे सुगम
शैली भावातीत ध्यान के अभ्यास से आसानी से हासिल किया जा सकता है।

