नई दिल्ली, 25 जून । उच्चतम न्यायालय ने जमानत आदेश के बावजूद 28 दिनों तक
एक व्यक्ति को जेल में रखने को स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन करार देते हुए उत्तर
प्रदेश सरकार को उसे(व्यक्ति को) पांच लाख रुपये का मुआवजा देने का निर्देश दिया है।
न्यायमूर्ति के वी विश्वनाथन और न्यायमूर्ति एन के सिंह की पीठ बुधवार को बंदी प्रत्यक्षीकरण
मामले की सुनवाई कर रही थी, जिसमें यह बात सामने आई थी कि गाजियाबाद जेल प्रशासन 29
अप्रैल को पारित शीर्ष अदालत के आदेश और 27 मई के औपचारिक रिहाई आदेश के बावजूद आरोपी
को रिहा करने में पूरी तरह से विफल रहा है।
पीठ ने कहा, “भगवान जानता है कि ऐसे कितने लोग जेलों में सड़ रहे हैं।”न्यायमूर्ति विश्वनाथन ने
तकनीकी बातों पर जोर देने वाले जेल अधिकारियों के आचरण की निंदा की। उन्होंने गाजियाबाद के
प्रधान जिला एवं सत्र न्यायाधीश को इसकी जांच करने और व्यक्ति की रिहाई में 28 दिनों की देरी
के लिए जिम्मेदार अधिकारियों की जवाबदेही तय करने का आदेश दिया।
भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 366 और उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध
अधिनियम, 2021 की धारा तीन और पांच (आई) के तहत गिरफ्तार किया गया वह व्यक्ति 24 जून
तक हिरासत में रहा। अधिकारियों ने सफाई दी कि जमानत आदेश में एक उप-धारा की चूक के
कारण व्यक्ति की रिहाई नही हो पायी थी।
न्यायमूर्ति विश्वनाथन ने तीखी टिप्पणी करते हुए कहा,“स्वतंत्रता एक व्यक्ति को दी गई एक बहुत
ही मूल्यवान और अनमोल अधिकार है। इसे इन बेकार की तकनीकी बातों पर समझौता नहीं किया
जा सकता। जब इस अदालत ने एक वैध आदेश पारित करके स्वतंत्रता दी है, तो उसे कैसे छीना जा सकता है?”
जेल अधिकारियों और राज्य प्रशासन पर तीखी टिप्पणी करते हुए अदालत ने कहा,“क्या किसी
उपधारा को छोड़ देना किसी को हिरासत में रखने का वैध आधार है। अगर हम स्पष्ट न्यायिक
आदेशों के बावजूद लोगों को सलाखों के पीछे रखते हैं तो हम आज जन को क्या संदेश दे रहे हैं।”
उत्तर प्रदेश की अतिरिक्त महाधिवक्ता गरिमा प्रसाद और उत्तर प्रदेश के महानिदेशक कारागार पीसी
मीना वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए अदालती कार्यवाही में शामिल हुए। गाजियाबाद जेल अधीक्षक पीठ
के समक्ष उपस्थित थे।
न्यायमूर्ति विश्वनाथन ने कहा,“आपने उसे कल हमारे हस्तक्षेप के बाद ही रिहा किया। इससे पता
चलता है कि आपको किसी और आदेश को मानने की जरुरत नहीं थी। यह तकनीकी की गलती को
आधार बनाकर स्वतंत्रता के अधिकार से इनकार करने का एकमात्र बहाना था। कौन-सा प्रावधान
कहता है कि यदि कोई उप-धारा छूट गयी है तो जमानत आदेश के बावजूद किसी व्यक्ति को जेल में
जरूरी रखना चाहिए।” जब अतिरिक्त महाधिवक्ता प्रसाद ने प्रस्तुत किया कि मेरठ के डीआईजी
(जेल) को आंतरिक जांच करने के लिए कहा गया है, तो पीठ ने इसे सिरे से खारिज करते हुए कहा,
“नहीं, हमें न्यायिक जांच चाहिए, आंतरिक जांच नहीं चाहिये।”
न्यायमूर्ति विश्वनाथन ने कहा, “हमें नहीं पता कि इस तरह के कारणों से कितने अन्य लोग जेलों में
सड़ रहे हैं। हम निहित स्वार्थों की किसी भी संभावना को खारिज करना चाहते हैं। देश में जेल बहुत
हैं। हम इस मामले को नहीं छोड़ेंगे।”
इसके बाद अदालत ने गाजियाबाद के प्रधान जिला न्यायाधीश को रिहाई आदेश के देने में देरी के
कारणों की न्यायिक जांच करने का निर्देश दिया। अदालत ने कहा कि क्या उप-धारा की चूक वास्तव
में देरी का कारण थी, या फिर इसमें कुछ और इरादा था या घोर लापरवाही शामिल थी।
पीठ ने चेतावनी दी कि पांच लाख रुपये का मुआवजा अंतरिम है और यदि न्यायिक जांच में किसी
विशेष अधिकारी पर दोष सिद्ध होता है तो यह राशि उनसे व्यक्तिगत रूप से वसूल की जाएगी।
इस मामले की अगली सुनवाई की तिथि 27 जून मुकर्रर की गयी है।

